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सु॒गव्यं॑ नो वा॒जी स्वश्व्यं॑ पु॒ꣳसः पु॒त्राँ२ऽउ॒त वि॑श्वा॒पुष॑ꣳ र॒यिम्। अ॒ना॒गा॒स्त्वं नो॒ऽअदि॑तिः कृणोतु क्ष॒त्रं नो॒ऽअश्वो॑ वनता ह॒विष्मा॑न् ॥४५ ॥

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पद पाठ

सु॒गव्य॒मिति॑ सु॒ऽगव्य॑म्। नः॒। वा॒जी। स्वश्व्य॒मिति॑ सु॒ऽअश्व्य॑म्। पुं॒सः। पु॒त्रान्। उ॒त। वि॒श्वा॒पुष॑म्। वि॒श्वु॒पुष॒मिति॑ विश्व॒ऽपुष॑म्। र॒यिम्। अ॒ना॒गा॒स्त्वमित्य॑नागः॒ऽत्वम्। नः॒। अदि॑तिः। कृ॒णो॒तु॒। क्ष॒त्रम्। नः॒। अश्वः॑। व॒न॒ता॒म्। ह॒विष्मा॑न् ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किन से राज्य की उन्नति होवे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (नः) हमारा (वाजी) घोड़ा (सुगव्यम्) सुन्दर गौओं के लिये सुखस्वरूप (स्वश्व्यम्) अच्छे घोड़ों में प्रसिद्ध हुए काम को करता है वा जो विद्वान् (पुंसः) पुरुषपन से युक्त पुरुषार्थी (पुत्रान्) पुत्रों (उत) और (विश्वापुषम्) समग्र पुष्टि करनेवाले (रयिम्) धन को प्राप्त होता वा जैसे (अदितिः) कारणरूप से अविनाशी भूमि (नः) हमारे लिये (अनागास्त्वम्) अपराधरहित होने को करती है, वैसे आप (कृणोतु) करें वा जैसे (हविष्मान्) प्रशंसित सुख देने जिस में हैं, वह (अश्वः) व्याप्तिशील प्राणी (नः) हम लोगों के (क्षत्रम्) राज्य को (वनताम्) सेवे, वैसे आप सेवा किया करो ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य से वीर्यवान् घोड़े के समान अमोघवीर्य्य पुरुषार्थ से धन पाये हुए न्याय से राज्य को उन्नति देवें, वे सुखी होवें ॥४५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कै राज्योन्नतिः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

(सुगव्यम्) सुष्ठु गोभ्यो हितम् (नः) अस्माकम् (वाजी) अश्वः (स्वश्व्यम्) शोभनेष्वश्वेषु भवम् (पुंसः) पुंस्त्वयुक्तान् पुरुषार्थिनः (पुत्रान्) (उत) अपि (विश्वापुषम्) समग्रपुष्टिकरम् (रयिम्) धनम् (अनागास्त्वम्) अनपराधत्वम् (नः) अस्मान् (अदितिः) कारणरूपेणाविनाशिनी भूमिः (कृणोतु) (क्षत्रम्) राज्यम् (नः) अस्माकम् (अश्वः) व्याप्तिशीलः (वनताम्) संभजताम् (हविष्मान्) प्रशस्तानि हवींषि सुखदानानि यस्मिन् सः ॥४५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यो नो वाजी सुगव्यं स्वश्व्यङ्करोति, यो विद्वान् पुंसः पुत्रानुत विश्वापुषं रयिञ्च प्राप्नोति, यथाऽदितिर्नोऽनागास्त्वङ्करोति, तथा भवान् कृणोतु। यथा हविष्मानश्वो नः क्षत्रं वनतान्तथा त्वं सेवस्व ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये जितेन्द्रिया ब्रह्मचर्येण वीर्यवन्तोऽश्व इवाऽमोघवीर्याः पुरुषार्थेन धनं प्राप्नुवन्तो न्यायेन राज्यमुन्नयेयुस्ते सुखिनः स्युः ॥४५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे जितेंद्रिय व ब्रह्मचारी असून घोड्यांप्रमाणे बलवान असतात व पुरुषार्थाने धन कमावून न्यायीपणाने राज्याची उन्नती करतात ते सुखी होतात.